मेरा जन्म 1947 में तेलंगाना राज्य के शक्करनगर, बोधन में हुआ था। मैं एक ब्राह्मण परिवार से हूँ। मेरी माता श्रीमती सावित्री देवी और पिता श्री पी. वी. रमणाराव है। मेरी माता एक गृहिणी और पिता एक उत्कृष्ट शिक्षाविद थे। हम चार भाई-बहन हैं।
मेरे बड़े भाई डॉ. पी. के. वेणु विनोद जी की प्ररेणा व कुशल मार्गदर्शन में मैंने अपनी शिक्षा व व्यावसायिक डिग्री को प्राप्त किया। मैंने मृदा विज्ञान में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। मैंने तेनाली (तेलंगाना) में आयकर विभाग में निरीक्षक के रूप में काम किया। मैंने कोरोमंडल फर्टिलाइजर्स के विक्री विभाग में भी विभिन्न स्तरों पर काम किया। अपने बड़े भाई की प्रेरणा से मैंने बांसुरी वादन सीखा और स्वर संगीत का प्रशिक्षण भी लिया। मुझे पद्मभूषण डॉ. श्रीपाद पिनाकपाणि जी से कर्नाटक संगीत सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
स्वाध्याय में रुचि
मुझे बचपन से ही पुस्तकें पढ़ने में रूचि थी। मैंने 16 वर्ष की आयु में हो डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा लिखित ‘भारतीय दर्शन’ के दोनों खड़ों का अध्ययन कर लिया था।
मैंने ‘माई एक्सपेरिमेंट विद टूथ, विश्वनाथ सत्यनारायण तेलुगु पुस्तक वेई पडगलू, पंडित राधाकृष्णन द्वारा लिखी इंडियन फिलॉसफी, मिल्टन, शेक्सपीयर, टालस्टॉय, दोस्तोवस्की, हिमालय के संतों के संग, योगी कथामृत, भगवद्गीता उपनिषद्, पुराण, बाइबिल, कुरान, चीन के दर्शनशास्त्र आदि साहित्य भी पढ़े। मैंने एक लाख से अधिक पुस्तकें पढ़ी हैं। मैं IAS की परीक्षा की तैयारी के समय हैदराबाद के पुस्तकालयों में कई घंटों तक अध्ययन करता था।
पारिवारिक जीवन
1974 में स्वर्णमाला जी से मेरा विवाह हुआ। हमारी दो बेटियां परिणीता व परिभाला हैं।
आत्मज्ञान प्राप्ति
1977 में मेरे एक सहकर्मी श्री रामचंना रेही जो ने मुझे ध्यान से अवगत कराया। मेरे इस अध्यात्मिक मित्र ने मुझसे अपने ध्यान के अनेक अनुभव साझा किए जिससे मेरी ध्यान में रूचि बढ़ती गई। ‘आनापानसति ध्यान’ के साथ मैंने कई प्रयोग करने प्रारंभ किए।
दिसंबर, 1979 में लोबसंग राम्पा द्वारा रचित पुस्तक ‘यू फॉरएवर’ को पढ़ते हुए मुझे आत्मज्ञान हो गया। सूक्ष्म शरीर व सूक्ष्म शरीर यात्रा के अनुभवों के संदर्भ में यह पुस्तक अद्भुत है। इस पुस्तक को पढ़ने से मुझे यह पता चला कि किस प्रकार लोबसंग राम्पा को सत्य को सामने लाने के लिए कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। मुझे पता था कि ‘इस पुस्तक में जो कुछ भी लिखा गया है वह सब सत्य है।’ सत्य स्थान, समय की सभी सीमाओं से परे शाश्वत और स्थिर रहता है। मैं इस सत्य को जान चुका था कि ‘मौलिक रूप से हर वस्तु चेतना ही है। इस महान लीला में चेतना ही जन्म व पुनर्जन्म लेती है।
जन्म और पुनर्जन्म में अपनी भूमिका निभाते हुए निरन्तर मेरे सामने यह स्पष्ट हो चुका था कि ‘हमारे अनेकानेक जन्म हुए हैं। हर जन्म मे कार्य-कारण सिद्धांत काम करता रहता है। अस्तित्व में आत्मा के लिए तिरोगमन नहीं है बल्कि आत्मा के क्रमागत विकास की इस गति को बढ़ाया जा सकता है। मैं समझ गया था कि ‘जो भी वर्तमान में घटित हो रहा है उसके लिए अस्तित्व में अनंत संभावनाएं हैं।’
मेरे आत्मज्ञान का क्षण अत्यंत प्राकृतिक था जैसे कोई सुबह नींद से जाग जाता है उस समय में धरती पर अपने उद्देश्य के प्रति पूर्णता सचेत हो चुका था। जब मुझे आत्मज्ञान हुआ तो मैंने एक ऐसे अनुभव को प्राप्त किया जो खुशी और आनंद के परे था। यह एक तटस्थ स्थिति थी। यह तटस्थ स्थिति भूतकाल, वर्तमान, किसी व्यक्ति, वस्तु, विशेष के लिए या उसके विरुद्ध नहीं थी। यह विचारों, वचनों और कर्मों के बीच को प्राकृतिक तटस्थता थी।
आत्मज्ञान की अवस्थाएं
हर व्यक्ति के जीवन में सत्य की खोज तीन अवस्थाएं आती हैं –
- आत्मज्ञान से पूर्व आत्मज्ञान विशिष्ट आत्मज्ञान
- आत्मज्ञान के पश्चात आत्मज्ञान
- आत्मज्ञान की तमन्ना
आत्मज्ञान की तमन्ना जागृत होना हो आत्मज्ञान से पूर्व आत्मज्ञान है। ध्यान से यह ज्ञान होता है कि मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ। में शरीर में हूँ और शरीर से बाहर भी हूँ। यह विशिष्ट आत्मज्ञान की अवस्था है पर यहां अंत नहीं हैं। आत्मज्ञान के पश्चात आत्मज्ञान इस अवस्था में आप सूक्ष्म शरीर से कारण शरीर और कारण शरीर से महाकारण शरीर में आते हो। आप बहुत सारे आयामों को देखते हो और मास्टर्स से मिलते हो यह आत्मज्ञान का तीसरा चरण है।
‘आत्मज्ञान’ सर्वप्रथम एक शिष्य, मास्टर, शोधकर्ता और एक अध्यापक बनने की लंबी प्रक्रिया है।
मेरे जीवन का उद्वेश्य
‘आत्मज्ञान’ के समय मेरे जीवन का लक्ष्य स्पष्ट हो गया था। अब मुझे पारिवारिक जीवन में रहते हुए विश्व कल्याण के लिए ध्यान, शाकाहार और आध्यात्मिक विज्ञान का प्रचार करना है।
आज एक नयी आध्यात्मिक क्रांति का युग है जो किसी भी धर्म से सम्बंधित नहीं है। बुद्ध, महावीर, मोहम्मद ने जिस सत्य को पाया है, आध्यात्मिक वैज्ञानिक बनकर सभी उस सत्य को पा सकते हैं। इसके लिए सरल, सहज आनापानसति ध्यान करना, सभी को ध्यान सिखाना, सभी अध्यात्मिक मास्टर्स की पुस्तकें पढ़ना और ध्यानियों के अनुभवों को सुनना।
PSSM की पत्रिकाएं
1980 में, मैं पुस्तकों से कुछ कोटेशंस निकालकर ‘सत्संग’ नाम से 10 पन्ने की एक पत्रिका बनवाता था। वह हमारा पहला पुस्तक प्रकाशन था जो एक साल तक चला। इसके बाद तेलुगु में एक पत्रिका आयी जिसका नाम ‘ध्यानान्ध्रप्रदेश’ रखा।
1990 में मेरे एक मित्र एन. सी. शौरी जी के घर की छत पर हमने पहला ध्यान केंद्र ‘मेडिटेशन एंड एनलाइटेनमेंट सेंटर’ खोला उस ध्यान केंद्र का प्रचार करने के लिए हमने ध्यान और आत्मज्ञान से सम्बंधित पर्चे जगह-जगह बांटे।
प्रमुख सितार वादक डॉ. संजय किंगी के स्टूडियो में मेरे बांसुरी वादन के साथ निर्देशित ध्यान, भजगोविंदम, गीता पर व्याख्यान आदि अनेक कैसेट रिकॉर्ड हुए। जब मैंने अपने संगीत गुरु श्रीपाद पिनाकपाणि जी को अपना ध्यान का कैसेट सुनाया तो उन्होंने पूछा ‘तुमने हिंदुस्तानी संगीत कब सीखा? उस समय मुझे पता चला कि मैं पिछले जन्मों में हिंदुस्तानी गायक था। गुरु से यह बात सुनना मेरे लिए अत्यंत उत्साहवर्धक था। जब हम प्रगति करते हैं तो हमारा पूर्व जन्म का ज्ञान भी आ जाता है।
1982 में ‘सीक्रेट पावर ऑफ पिरामिड’, बिल शुल एंड एंड पेटिट द्वारा लिखी पुस्तक पढ़कर मैंने पिरामिड के साथ अनुभव किये। जो लोग पिरामिड टोपी पहनकर ध्यान करते उन्होंने बताया कि पिरामिड से उनका ध्यान गहरा हो जाता है। मैंने उस समय सभी ध्यानियों के अनुभवों की पुस्तक भी प्रकाशित करवाई।
1991 में मैं प्रत्येक शनिवार रात को अपने घर पर ही ध्यान सत्र लेता था। रात को 15-20 लोग ध्यान करने आते थे और सुबह चले जाते थे। एक दिन उसी ध्यान सत्र में बी.वी. रेड्डी जी आये। पहली बार ध्यान करने से ही उन्हें तीसरी आँख का अनुभव हुआ। सुबह उन्होंने मुझे फोन करके बताया कि मेरे पास एक खाली जगह है वहां हम ध्यान केंद्र बनाएंगे। मैंने कहा अगर आप ध्यान केंद्र बनाना चाहते हो तो आप मुझे पिरामिड ध्यान केंद्र बनाकर दीजिये।
बी.वी. रेड्डी जी ने पिरामिड के बारे में पूछा तो मैंने उन्हें ‘सीक्रेट पावर ऑफ पिरामिड’ बिल शुल एंड पेटिट द्वारा लिखी पुस्तक दी। उस पुस्तक से वह अत्यंत प्रभावित हुए। मैंने मेरे ऑफिस के दोस्तों से पिरामिड के लिए तीन लाख चंदा इकट्ठा किया और तीन लाख रूपया बी.वी. रेड्डी जी ने दिया। 1992 में बुद्धा पिरामिड ध्यान केंद्र बनकर तैयार हो गया।
नौकरी से इस्तीफा
ध्यान केंद्र बनने के बाद मैंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और पूरा समय ध्यान प्रचार को समर्पित कर दिया।
मैंने 1996 में ‘बी.ए. मास्टर’, ‘तुलसीदलम’ और ‘अमृत कलश’ पुस्तकें लिखी। अभी तक मैंने 50 से ज्यादा पुस्तकें लिखी हैं।
मैं अपने परिवार, मित्रों, सहकर्मियों, ड्राइवर, सब्जी वाले व्यापारी, काम करने वाले लोग जो भी मेरे संपर्क में आते थे सबको ध्यान सिखाता था। धीरे-धीरे मैंने ध्यान के साथ संगीत, स्व-सुझाव और पिरामिड को भी जोड़ दिया।
टी.वी पर धार्मिक चैनल देखकर मुझे ऐसा लगता था कि PSSM का भी एक चैनल होना चाहिए। 21 दिसंबर 2017 को पिरामिड मेडिटेशन चैनल (PMC) शुरू हुआ और मंग वह सपना भी पूरा हुआ।
साधारणतया जब कोई व्यक्ति आत्मज्ञान को प्राप्त करता है तो उसके आस पास एक नया आंदोलन शुरू हो जाता है। जैसे पानी में जब एक पत्थर फेंकते हैं तो पूरे तालाब में उसकी तरंगे फैल जाती है। उस समय की तरंगे ही आज PSSM है।
PSSM का उद्वेश्य
PSSM आज आनापानसति ध्यान, शाकाहार, पिरामिड ऊर्जा और नवयुग के आध्यात्मिक विज्ञान को जन-जन तक पहुंचा रहा है।
PSSM आप सबको आध्यात्मिक विज्ञान के सिंह द्वार में प्रवेश करने का निमंत्रण देता है और विश्व के सभी आध्यात्मिक वैज्ञानिकों की पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
शाकाहारी बनें, शाकाहार का प्रचार करें, ध्यान करें और ध्यान सिखाएं।